आदिकाल से ही मनुष्य अंधकार को दूर भगाने के लिए प्रकाश(light) पैदा करने का कोई न कोई साधन जुटाता रहा है। पहले वह आग जलाकर रोशनी पैदा करता था। उसके बाद उसने मोमबत्ती और तेल के दीपकों का इस्तेमाल करना शुरू किया। सन 1878 में थामस अल्वा एडीसन (Thomas Alva Edison)नामक वैज्ञानिक ने बिजली से जलने वाले बल्ब का आविष्कार किया।
रोशनी पैदा करने के लिए घरों में काम आने वाली ट्यूब कांच की एक नली होती है। इस नली के अंदर की दीवारों पर किसी उपयुक्त प्रतिदीप्ति पदार्थ (Fluorescent Material) की तह चढ़ा दी जाती है| प्रतिदीप्ति पदार्थ वे हैं, जो आंखों को न दिखने वाली पराबैंगनी किरणों को प्रकाश में बदल देते हैं। इसके दोनों सिरों पर टंगस्टन धातु के दो इलेक्ट्रॉड लगाए जाते हैं। नली के अंदर की हवा निकालकर थोड़ा सा पारा और आर्गन गैस भर दी जाती है। जब इन इलेक्ट्रॉडों का संबंध विद्युतधारा से जोड़ा जाता है, तब ये गर्म हो जाते हैं और इनसे इलेक्ट्रॉन निकलने लगते हैं। ये इलेक्ट्रॉन पारे के परमाणुओं से टकराते हैं, जिसके फलस्वरूप आंखों को न दिखाई देने वाला पराबैंगनी प्रकाश (Ultra Violet Light) पैदा होता है। जब यह पराबैंगनी प्रकाश कांच की नली पर लगे पदार्थ से टकराता है, तब उससे प्रकाश निकलने लगता है, जिसका रंग प्रतिदीप्ति पदार्थ पर निर्भर करता है। प्रतिदीप्ति पदार्थ के प्रयोग के कारण इनको हम प्रतिदीप्ति लैंप भी कहते हैं।
इन लैंपों से नीला प्रकाश पैदा करने के लिए कैल्शियम टंगस्टेट नामक पदार्थ की परत चढ़ाई जाती है। इसी प्रकार हल्के गुलाबी प्रकाश के लिए कैल्शियम सिलीकेट और हरे प्रकाश के लिए जिंक सिलीकेट आदि पदार्थों की परत चढ़ाई जाती है।ट्यूब लाइट प्रकाश के स्रोत के रूप में हमारे लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है। इनमें बिजली का खर्च भी कम आता है और रोशनी भी अधिक होती है। सामान्य रूप से बिजली के एक यूनिट में एक ट्यूब लाइट 25 घंटों तक जलती है, क्योंकि इसकी शक्ति 40 वाट होती है। कम शक्ति की ट्यूब लाइट भी बाजार में उपलब्ध है।
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